Sunday, September 25, 2022

चिंतन

 *चिंतन*


 जब गुरु अविद्वान होता है तब छल, कपट, अधर्म बढ़ता है क्यूं कि एक अयोग्य गुरु स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने के लिए हरपल अपनी अयोग्यता को छल, प्रपंच, अधर्म के द्वारा ढकने का प्रयास करता है। जीविका मात्र हेतु किया गया शास्त्रों का अध्ययन अधर्म को बढ़ावा देता है। वर्तमान समय में गुरुओं की अविद्वता के कारण साधारण मनुष्य धर्म और कर्म का अर्थ समझने और उसे आचरण में उतारने से वंचित हैं। आज चारों तरफ धर्म का ज्ञान देने वालों की भरमार है और इस ज्ञान को ग्रहण करने वाले अनपढ़ नहीं बल्कि स्वयं को पढ़े - लिखे कहने वाले लोग ज्यादा हैं। वो अनपढ़ व्यक्ति ऐसे पढ़े लिखों से कहीं बेहतर है जो रोज मजूरी करके शाम को थकने के बाद नमक रोटी या दाल रोटी खाकर चुपचाप सो जाता है क्यूं कि उसे फुर्सत ही नहीं है प्रतिदिन धर्म की अलग अलग तरह की रंगोली को निहारने के लिए।

पढ़े लिखों का हाल ऐसा है कि वो मेहनत नहीं करना चाहते इस विषय को समझने के लिए कौन फालतू में  दिमाग खर्च करे उससे तो अच्छा है किसी को भी गुरु बना लो वो जैसा बताए करते जाओ। सत्य को समझने और जानने के लिए सत्यरूपी कुएं में उतरना पड़ेगा। एक योग्य गुरु तलाशने के लिए न जाने कितना भटकना पड़ेगा। यदि अपने अंतर्मन को गुरु माने तो वर्षों वहां तक की यात्रा तह करनी पड़ेगी, यदि ईश्वर को गुरु माने तो उसकी बनाई इस श्रृष्टि को समझने के लिए वर्षों तप करना पड़ेगा। यदि किसी योग्य गुरु को तलाशे तो पहले एक गुरु तलाशने के योग्य स्वयं को बनाना पड़ेगा छल, कपट, प्रपंच से रहित होकर सदमार्गी बनना पड़ेगा।

कौन पड़े इन सब झंझटों में इसलिए ज्यादातर लोगों ने सुगम रास्ते चुन लिए फिर उन ज्यादातर लोगों को ढाल बनाकर अयोग्य गुरुओं ने अपनी कही मिथ्या बातों और मिथ्या धारणाओं को ही सत्य बनाकर परोस दिया सबके सामने। इससे संस्कृति का पतन हो, धर्म का पतन हो, पुरुषार्थ अकर्मण्यता में बदल जाए, आने वाले पीढ़ियों का पतन हो, राष्ट्र की हानि हो उन्हें क्या फर्क पड़ता है उन्हें तो बस राग, द्वेष, ईर्ष्या, अधर्म की जड़ें मजबूत करनी हैं ---- ✍🏻


दिवस - शनिवार

दिनांक २५/०९/२१

*आर्या शिवकांति*

*(तनु जी)*

Monday, September 12, 2022

उलझन

 *उलझन*


हम जिसे जानते  ही नहीं! उसमें क्यों उलझें?

जो हमें मानते ही नहीं!

उसमें भी हम क्यों उलझें?

जिसकी अनुभूति  छलावा से अवगत कराए!

और जो हमें वफा के बदले!

सिसकियां दे जाए!

 उसमें भी हम क्यों उलझें?

जो कहे तो कि हम तुम्हारे हैं! और सच में किसी गैर को चाहे!

उसमें भी हम क्यों उलझें?

मन में प्रेम का सरगम बजाए, और

चांद, तारों के बीच ले जाए!

उसमें भी हम क्यों उलझें?

साथ हो जब हमारे तब *उसे* गैर और संग हो *उसके* तब हमें गैर बताए!

इसमें भी हम क्यों उलझें?

साथ देने का दम भरे उम्र भर!

 और फिर हमें बेसहारा छोड़ जाए!

इसमें भी हम क्यों उलझें?

हम जिसे चाहें वो किसी और को चाहे!

 इसमें भी हम क्यों उलझें?

पहनकर मुखौटा आदर्शों का!

कारनामें शातिराना कर जाए!

इसमें भी हम क्यों उलझें?

निगाहों में बसकर हमारी वो निगाहें किसी और से मिलाए!

इसमें भी हम क्यों उलझें?

अकेले में बनाकर अपना,

 वो भीड़ में हमें भूल जाए!

इसमें भी हम क्यों उलझें?

हम जीते रहे उम्रभर रिश्तों के लिए!

और हर रिश्ता एक दिन हमें ठुकराए!

इसमें भी हम क्यों उलझें?

माना कि निभाया हमने कर्तव्य अपना!

पर वो न निभाए!

इसमें भी हम क्यों उलझें!

इस उलझन से ही तो निकलना है!

और खुद को बदलना है!

ठोकरें खाकर गिरना कोई अचंभा तो नहीं!

गर गिर भी गए तो हर हाल में संभलना है!

इन उलझनों में पूरा संसार ये उलझा है!

और हम खोजते फिरते कि यहां कौन सुलझा है!

समझना तो चाहा हमने भी इस उलझन को!

 इस ओर से उस छोर तक!

न ये ओर समझ आया न वो छोर समझ आया!

लेकिन उलझनों का कुछ - कुछ दौर समझ आया!

हृदय बोला फिर हृदय बनाने वाले से!

उस निर्लेप, उस नियंता, उस निराले से!!!

न इस छोर रहने का मन है!

न उस ओर जाने का मन है!

हे मेरे भगवन! हे मेरे प्रीतम! बस तेरी ओर आने का मन है ✍🏻!!!!!


सोमवार

आश्विन/कृष्ण द्वितीया/वि.२०७९

12/09/22

*आर्या शिवकांति*

(तनु जी)

Wednesday, September 7, 2022

बनके मैं याचक

 *बनके मैं याचक पुकारूं*


दिल के झुरमुट में बैठे,

 निहारूं पिया को!

बनके मैं याचक,

 पुकारूं पिया को!

मेरे मन भवन में,

वो रुनझुन सा बजता,

पुष्पों की गलियों में,

कर गुनगुन वो सजता!!

ध्वनियां भी सारी,

बनाता वही है!

सरगम भी वो,

गुनगुनाता वही है!

धमनियों में उसका ही,

वरदान बहता,,

देता वो सबकुछ है,

कुछ भी न कहता!

सजा दी ये काया,

बनाकरके चेतन,

भुलाकर हम उसको,

बने हैं अचेतन!

श्रृंगार मन का भी,

बाकी बहुत है,,,

मन के इस दर्पण में,

माटी बहुत है!!!

छुड़ा कर मैं माटी,

बनाऊं घरौंदा,

बो दूं उसीमें

 पिया नाम का पौधा!

सींचू मैं नित नित, भर,

प्रेम रस की गगरी,

ले जाए जिस ओर, मैं,

चलूं उसी डगरी!

पिया सर्वव्यापी,

मुझे यूं रिझाए,

चांद, तारे बनकर,

 गगन झिलमिलाए!

ऊषा की बेला,

गोधूल रानी!!

प्यारी बहुत हैं,

पिया की निशानी!!!

तपती दुपहरी और,

तरुवर की छाया!!!

पिया जी ने अद्भुत,

ये घर है बनाया!!

न अंबर की टोह,

न समंदर की थाह है!

पिया तक पहुंचने की,

 सीधी सी राह है!!!!

समंदर और अंबर से,

 वापस मैं आई,

पिया जी को झुरमुट में,

 फिर से ले आई!

डुंबू पिया में,

मैं तारूं जिया को!!!!

बनके मैं याचक,

पुकारूं पिया को!!!

दिल के झुरमुट में बैठे,

निहारूं पिया को!!!

बनके मैं याचक,

 पुकारूं पिया को!!!! ✍🏻


*बुधवार*

*भाद्रपद/शुक्ल द्वादशी/वि.२०७९*

*07/09/22*

*आर्या शिवकांति*

(तनु जी)