Monday, September 12, 2022

उलझन

 *उलझन*


हम जिसे जानते  ही नहीं! उसमें क्यों उलझें?

जो हमें मानते ही नहीं!

उसमें भी हम क्यों उलझें?

जिसकी अनुभूति  छलावा से अवगत कराए!

और जो हमें वफा के बदले!

सिसकियां दे जाए!

 उसमें भी हम क्यों उलझें?

जो कहे तो कि हम तुम्हारे हैं! और सच में किसी गैर को चाहे!

उसमें भी हम क्यों उलझें?

मन में प्रेम का सरगम बजाए, और

चांद, तारों के बीच ले जाए!

उसमें भी हम क्यों उलझें?

साथ हो जब हमारे तब *उसे* गैर और संग हो *उसके* तब हमें गैर बताए!

इसमें भी हम क्यों उलझें?

साथ देने का दम भरे उम्र भर!

 और फिर हमें बेसहारा छोड़ जाए!

इसमें भी हम क्यों उलझें?

हम जिसे चाहें वो किसी और को चाहे!

 इसमें भी हम क्यों उलझें?

पहनकर मुखौटा आदर्शों का!

कारनामें शातिराना कर जाए!

इसमें भी हम क्यों उलझें?

निगाहों में बसकर हमारी वो निगाहें किसी और से मिलाए!

इसमें भी हम क्यों उलझें?

अकेले में बनाकर अपना,

 वो भीड़ में हमें भूल जाए!

इसमें भी हम क्यों उलझें?

हम जीते रहे उम्रभर रिश्तों के लिए!

और हर रिश्ता एक दिन हमें ठुकराए!

इसमें भी हम क्यों उलझें?

माना कि निभाया हमने कर्तव्य अपना!

पर वो न निभाए!

इसमें भी हम क्यों उलझें!

इस उलझन से ही तो निकलना है!

और खुद को बदलना है!

ठोकरें खाकर गिरना कोई अचंभा तो नहीं!

गर गिर भी गए तो हर हाल में संभलना है!

इन उलझनों में पूरा संसार ये उलझा है!

और हम खोजते फिरते कि यहां कौन सुलझा है!

समझना तो चाहा हमने भी इस उलझन को!

 इस ओर से उस छोर तक!

न ये ओर समझ आया न वो छोर समझ आया!

लेकिन उलझनों का कुछ - कुछ दौर समझ आया!

हृदय बोला फिर हृदय बनाने वाले से!

उस निर्लेप, उस नियंता, उस निराले से!!!

न इस छोर रहने का मन है!

न उस ओर जाने का मन है!

हे मेरे भगवन! हे मेरे प्रीतम! बस तेरी ओर आने का मन है ✍🏻!!!!!


सोमवार

आश्विन/कृष्ण द्वितीया/वि.२०७९

12/09/22

*आर्या शिवकांति*

(तनु जी)

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