आशु रचना------
मैं तन्हा पथिक विचलित सी,
मेरे मन की उहा-पोह में,
गरजते हुये काले मेघों के बीच--
पथ को तलाशते हुए-------
निकल गयी फिर बड़ी दूर-----
हौले- हौले मेरे ही कदम चले जा रहे थे,
मेरे ही अंतर्मन के द्वार की ओर-----
हाँ प्रेम हो गया था मुझे उस पथ के हर धुल कण से----
जो जाते हैं मेरे प्रियतम के द्वार तक-------
न जाने कितनी बंदिशें रोकती रह गयी मुझे,
और मेरे हर स्पंदन को,
पहुंचना था अपने पतवार तक-------
न जाने कब टूट गयी,
उस मकान की दीवार,
जो बड़ी ही सख्त थी,,,,,
मैं चुटहिल पथिक------
न लता थी,
न दरख़्त थी-----
जितनी टूटी उतनी मजबूती से जुड़ती गयी-----
निज के अन्तर्मन से------
उसके प्रेम का सैलाब बेताब था,,,,
मुझे लेने को अपने आलिंगन में------
मैं अपलक निहारती रह गयी,,,,
बंद पलकों से------
अपने बागवां की गलियों को------
बन्द होंठ मेरे,,,,
उसका नाम पुकारते हुए न थकते,,,,
न जाने कब कर लिया गठबंधन,
हमारे रोम-रोम ने------
हमारे उस बादशाह से जिसने,,,,
न कोई शर्त रखी और न ही कहीं हस्ताक्षर लिए-----
मैं तन्हा सी पथिक,
तन्हा न थी------
उसने ले लिया मेरा हाथ अपने हाथों में-----
और मैं उसके नाम का श्रृंगार करती रह गयी-----
अनन्त आभूषणों का श्रृंगार-----
वो देखता रह गया मुझे मेरे ही दिल की नगरी में--------
...................✍🏻
२४/१०/२०१८
शिवकान्ति आर कमल
(तनु जी)
मैं तन्हा पथिक विचलित सी,
मेरे मन की उहा-पोह में,
गरजते हुये काले मेघों के बीच--
पथ को तलाशते हुए-------
निकल गयी फिर बड़ी दूर-----
हौले- हौले मेरे ही कदम चले जा रहे थे,
मेरे ही अंतर्मन के द्वार की ओर-----
हाँ प्रेम हो गया था मुझे उस पथ के हर धुल कण से----
जो जाते हैं मेरे प्रियतम के द्वार तक-------
न जाने कितनी बंदिशें रोकती रह गयी मुझे,
और मेरे हर स्पंदन को,
पहुंचना था अपने पतवार तक-------
न जाने कब टूट गयी,
उस मकान की दीवार,
जो बड़ी ही सख्त थी,,,,,
मैं चुटहिल पथिक------
न लता थी,
न दरख़्त थी-----
जितनी टूटी उतनी मजबूती से जुड़ती गयी-----
निज के अन्तर्मन से------
उसके प्रेम का सैलाब बेताब था,,,,
मुझे लेने को अपने आलिंगन में------
मैं अपलक निहारती रह गयी,,,,
बंद पलकों से------
अपने बागवां की गलियों को------
बन्द होंठ मेरे,,,,
उसका नाम पुकारते हुए न थकते,,,,
न जाने कब कर लिया गठबंधन,
हमारे रोम-रोम ने------
हमारे उस बादशाह से जिसने,,,,
न कोई शर्त रखी और न ही कहीं हस्ताक्षर लिए-----
मैं तन्हा सी पथिक,
तन्हा न थी------
उसने ले लिया मेरा हाथ अपने हाथों में-----
और मैं उसके नाम का श्रृंगार करती रह गयी-----
अनन्त आभूषणों का श्रृंगार-----
वो देखता रह गया मुझे मेरे ही दिल की नगरी में--------
...................✍🏻
२४/१०/२०१८
शिवकान्ति आर कमल
(तनु जी)
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