Tuesday, October 16, 2018

वो अडिग, अचल सी

*वो अडिग, अचल सी*

निज, नित के संघर्षों से,
सिंचता उसका यौवन था----
वो अडिग, अचल सी खड़ी रही----
जब तिल-तिल चुभता****
कंटक वन था-----

इसे पुकारा, उसे पुकारा----
न डूबी कस्ती, न मिला किनारा------
हौले-हौले पलकों पीछे,
कराह रहा था,
दिल बेचारा-----

भीतर से लेकर द्वार तलक,
फिर द्वार से लेकर भीतर तक---
हर कण-कण में वो खोज रही थी---
जीवित साँसों का मंजर""""

काया उसकी शून्य पड़ी थी,
पूछ रहा था मन उसका----
फूलों से तू घायल है,
या फिर लगा तुझे खंजर----

कूप निशाचर अँधियारों में,
बंद राह के गलियारों में----
तन्हा पथिक सी टकराती वो"""""
नित पत्थर की दीवारों से------

वो उपमा थी,
वो रूपक थी----
यमक नहीं थी,
पर श्लेष थी------
धधक रही थी अंदर से वो,
शायद इक चिंगारी,
शेष थी-----

सजती न तो क्या करती,,,,
खूब उफान पर यौवन था----
अलंकार था संघर्षों का----
न चूड़ी, न कंगन था------

वो अडिग, अचल सी खड़ी रही,
जब तिल-तिल चुभता,
कंटक वन था-----
निज, नित के संघर्षों से,
सिंचता उसका यौवन था-----✍🏻


कविता रचित दिनांक 👇🏻
२८/०९/१८
शिवकान्ति आर कमल
(तनु जी)

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