*स्वाभिमान का नाम दूसरा--भगवा रंग*
न ज्ञान समन्दर मुझमें है,
जो मैं पंडित कहलाऊँ-----
निज भुजाओं में वो बल नहीं,
कि मैं क्षत्राणी बन पाऊँ-----
न वैश्य मुझे तुम समझो जी,
न ही मैं व्यापार करूँ,,,,
तुम समझ रहे हो शूद्र मुझे?
क्यूँ अछूत मैं कहलाऊँ------?
जब सत्य सनातन अपमानित हो,
तब मैं पंडित बन जाती,,,,
स्वाभिमान पर वार करोगे,
तब मैं ज्वाला बन जाती-----
भूख से अपना तड़पे न कोई,,,,
जल और और अन्न जुटाऊँ मैं,,,,,
निज तन-मन को जब साफ करूँ,
तभी शूद्र कहलाऊँ मैं----🙏🏻😊
@@@@@@@@@@@@
जाति हमारी पूछ-पूछ कर,
तुम जात कहाँ हो,,,,,,
खुद पता करो------
जाति-पांति के चक्कर में,
मर मिटने की न खता करो-----
खूब मुगलों ने उत्पाद किया,,,,
वर्ण मिटाया, जाति किया----
मारा-काटा जनेऊ तोडा,,,,
इस तरह हमें बर्बाद किया-----
न वेदों का ज्ञान धराते हो,
न गीता ही पढ़ पाते हो----
अपवाद बनाकर 'सत्य सनातन'
पाखंड स्वयं फैलाते हो-----
न राम राज में था, पीड़ित कोई,,,,
न श्याम कोई व्यभिचारी थे-----
माता रुक्मणि के पति थे जो,
वो योगेश्वर जनेऊधारी थे-----
सच तुमको है स्वीकार नहीं,
की गयी मिलावट पढ़ते हो-----
अपने ही ऋषि मुनियों पर,,,,
खुद ही कहानी गढ़ते हो------
नशेड़ी कहे ब्राह्मण खुद को,,,,
दलित कहे मैं शोषित हूँ-----
धर्म ग्रंथ सब रोकर कहते,,,,
मैं पाखंड से पोषित हूँ------
सच को न स्वीकारे कोय-----
देख दुर्दशा *तनु* रोये------
हे ईश्वर तुम दया करो,,,,,,
फिर अपनी दुनिया, वैदिक होय----
वैदिक युग था,
जाति नहीं थी----
इस कलयुग में वर्ण नहीं है----
अधर्म को आकर धर्म सिखाये,,,,
ऐसा कोई कर्ण नही है-----
वर्ण व्यवस्था, जाति-पांति में,,
अंतर करना सीखो तुम-----
सिर-पैर बिना की बातें करके,,,,
इधर-उधर मत बिखरो तुम-----
मनन करो कुछ सोंचों मन में,,,
कौन कहाँ से आये थे,,,,,
वेदशाला कुतुबमीनार हो गयी,
नालंदा जलवाए थे-----
तेजो भी जो ताज हो गया,,,,,
वो मुग़ल कला सरताज हो गया-----
अकबर पोथी व्यापक हो गयी,,,,
हमारे प्रताप! दो पन्नों में समाये थे----
झाँसी जब वीरान हुयी,
ग़द्दार एक पिंडारी था????
था जाया उसका चाँद मियाँ,,,
वो बुड़बक देश पे भारी था----
राम, श्याम को भूल गए तुम,,,,
साईं-साईं चिल्लाते हो----
क्यूँ विश्वगुरु था देश हमारा-----
धरातल तक न जाते हो????
आदि न जिसका अंत कोई,,,
वो सत्य सनातन धर्म हमारा-----
स्वभिमान का नाम दूसरा,,,,
हाँ जी भगवा रंग हमारा----
यह पावन धरा हमारी है,,,
इस पर बलि-बलि जाऊँ मैं,,,
नहीं है मुझको खेद कोई,,,,
ब्राह्मण या शूद्र कहाऊँ मैं------
स्वरचित- २८/०४/२०१७
कुछ परिवर्तन के साथ प्रस्तुति
०२/१२/१८
निर्देश-एडेडिंग कॉपी पेस्ट वर्जित
शिवकान्ति आर कमल
(तनु जी)
की कलम से----✍🏻
न ज्ञान समन्दर मुझमें है,
जो मैं पंडित कहलाऊँ-----
निज भुजाओं में वो बल नहीं,
कि मैं क्षत्राणी बन पाऊँ-----
न वैश्य मुझे तुम समझो जी,
न ही मैं व्यापार करूँ,,,,
तुम समझ रहे हो शूद्र मुझे?
क्यूँ अछूत मैं कहलाऊँ------?
जब सत्य सनातन अपमानित हो,
तब मैं पंडित बन जाती,,,,
स्वाभिमान पर वार करोगे,
तब मैं ज्वाला बन जाती-----
भूख से अपना तड़पे न कोई,,,,
जल और और अन्न जुटाऊँ मैं,,,,,
निज तन-मन को जब साफ करूँ,
तभी शूद्र कहलाऊँ मैं----🙏🏻😊
@@@@@@@@@@@@
जाति हमारी पूछ-पूछ कर,
तुम जात कहाँ हो,,,,,,
खुद पता करो------
जाति-पांति के चक्कर में,
मर मिटने की न खता करो-----
खूब मुगलों ने उत्पाद किया,,,,
वर्ण मिटाया, जाति किया----
मारा-काटा जनेऊ तोडा,,,,
इस तरह हमें बर्बाद किया-----
न वेदों का ज्ञान धराते हो,
न गीता ही पढ़ पाते हो----
अपवाद बनाकर 'सत्य सनातन'
पाखंड स्वयं फैलाते हो-----
न राम राज में था, पीड़ित कोई,,,,
न श्याम कोई व्यभिचारी थे-----
माता रुक्मणि के पति थे जो,
वो योगेश्वर जनेऊधारी थे-----
सच तुमको है स्वीकार नहीं,
की गयी मिलावट पढ़ते हो-----
अपने ही ऋषि मुनियों पर,,,,
खुद ही कहानी गढ़ते हो------
नशेड़ी कहे ब्राह्मण खुद को,,,,
दलित कहे मैं शोषित हूँ-----
धर्म ग्रंथ सब रोकर कहते,,,,
मैं पाखंड से पोषित हूँ------
सच को न स्वीकारे कोय-----
देख दुर्दशा *तनु* रोये------
हे ईश्वर तुम दया करो,,,,,,
फिर अपनी दुनिया, वैदिक होय----
वैदिक युग था,
जाति नहीं थी----
इस कलयुग में वर्ण नहीं है----
अधर्म को आकर धर्म सिखाये,,,,
ऐसा कोई कर्ण नही है-----
वर्ण व्यवस्था, जाति-पांति में,,
अंतर करना सीखो तुम-----
सिर-पैर बिना की बातें करके,,,,
इधर-उधर मत बिखरो तुम-----
मनन करो कुछ सोंचों मन में,,,
कौन कहाँ से आये थे,,,,,
वेदशाला कुतुबमीनार हो गयी,
नालंदा जलवाए थे-----
तेजो भी जो ताज हो गया,,,,,
वो मुग़ल कला सरताज हो गया-----
अकबर पोथी व्यापक हो गयी,,,,
हमारे प्रताप! दो पन्नों में समाये थे----
झाँसी जब वीरान हुयी,
ग़द्दार एक पिंडारी था????
था जाया उसका चाँद मियाँ,,,
वो बुड़बक देश पे भारी था----
राम, श्याम को भूल गए तुम,,,,
साईं-साईं चिल्लाते हो----
क्यूँ विश्वगुरु था देश हमारा-----
धरातल तक न जाते हो????
आदि न जिसका अंत कोई,,,
वो सत्य सनातन धर्म हमारा-----
स्वभिमान का नाम दूसरा,,,,
हाँ जी भगवा रंग हमारा----
यह पावन धरा हमारी है,,,
इस पर बलि-बलि जाऊँ मैं,,,
नहीं है मुझको खेद कोई,,,,
ब्राह्मण या शूद्र कहाऊँ मैं------
स्वरचित- २८/०४/२०१७
कुछ परिवर्तन के साथ प्रस्तुति
०२/१२/१८
निर्देश-एडेडिंग कॉपी पेस्ट वर्जित
शिवकान्ति आर कमल
(तनु जी)
की कलम से----✍🏻
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