Saturday, September 29, 2018

तनु सयानी हो गयी जी




न जाने कब, कैसे----देखो?
मैं खुद ही कहानी हो गयी जी-----
सपनों में जो खोयी थीं,
वो आँखें----पानी हो गयीं जी----

महफ़िल में जो हँसती बातें,
दिल में जैसे धँसती बातें----
काजल का है जिनमें पहरा,
उन आँखों को धुलती रातें 😃

दिल में नयी सी रहती हरदम,
जो बात पुरानी हो गयी जी-----
गिर गिर कर फिर उठते देखो,
चूर जवानी हो गयी जी----

थी दिल में जब भी,
पीर बढ़ी-----
तन्हाई थी,
नजदीक खड़ी----
चारो ओर था रेत का दरिया,,,,
मैं पानी समझकर दौड़ पड़ी----

आँखे बंदकर ख्वाबों से,
इस दिल की शानी हो गयी जी-----
कुछ पल खातिर लगा मुझे,,,,
फिर *तनु*
 दीवानी हो गयी जी---

कुछ आह उठी कुछ हूँक उठी,
-----मेरी इस तन्हाई को-----
कुछ अपनेपन की भूख उठी----
आखिर मैं भी इंशा थी,
कुछ पल खुद से रूठ उठी---

आँखे फिर नादानी कर गयी,
खारा पानी हो गयीं जी-------
सुबह-शाम भी आसां नहीं थी"""""
हर रात रूहानी हो गयी जी------

नादान हमें सब कहते थे,
जब बचपन में, मैं रहते थी-----
अंजान थी जग की राहों से,,,
बन मीठा दरिया बहते थी----

अब दावानल भी मुझमें है,,,,,,
हिमगिरि सा भी है,
धुआँ यहाँ-----
अब संभल-संभल कर तुम चलना जी------
पग-पग पर है,
कुआँ यहाँ--------


भटक-भटक कर,
तड़प-तड़प कर-----
इन राहों की रानी हो गयी जी------
कल तक जो इक अल्हड़ थी---- 😃🔥🌵🌪⛈🌈💫
वो *तनु* सयानी हो गयी जी------
वो *तनु*--------- सयानी हो गयी जी*********


10/09/2018
शिवकान्ति आर कमल
(तनु जी)

Tuesday, September 25, 2018

शायरी


23/09/2018

जले थे हम अकेले,
बुझे थे हम अकेले------
कुछ दूर तो हम पहुंचे हैं,
जहां से चले थे हम अकेले------

जिद कल भी थी, जिद आज भी है------
न कल झुके थे गलत के सामने----
न आज झुके हैं-------
न झुकेंगे ताउम्र------

मेरी तन्हाइयों को आसमां मिल रहा है------
हम जा रहे मंजिल की तरफ-----
रास्ते में कारवाँ मिल रहा है------
रिस्तों की कीमत न लगाओ साहिब-----
जिसके बगीचे का अनमोल फूल हूँ मैं-----
हर कदम पर ऐसा बागवां मिल रहा है-------

Monday, September 24, 2018

एक चिन्तन

सभी आर्यावर्त वाशियों एवं इस देश को जो अपना समझते हैं उन्हें हमारा नमन-------

हम हिंदुओं (आर्यों) की संस्कृति में विराजमान दो महापुरुषों (मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण) पर अपने कुछ विचार इस लेख में लिख रही हूँ।

सबसे पहले तो उन ज्ञानियों से एक सवाल जो कहते हैं आर्य (हिन्दू) भारत के निवासी नहीं।
तो फिर आप बताएं भारत का मूल निवासी है कौन?

ईस्वी सन 711 में मुग़ल साम्राज्य आया भारत में,
2000 साल पहले ईसाई धर्म आया भारत में तो फिर आप बताएं सनातन धर्म कब कहाँ से आया।

आजकल सोसल मीडिया पर बहुत विद्वान् पैदा हो गए खासकर कुछ बनावटी *सवर्ण और कुछ बनावटी भीमटे*
ये एक दूसरे के खिलाफ खूब जहर लिखते हैं और फिर फॉरवर्ड करने वाले बेवकूफों को तो सौ तोपों की सलामी।

ऐसे तो मैं स्वयं ब्राह्मण नहीं हूँ लेकिन मैं भीमटे रंग में भी नहीं हूँ।
आज की मेरी खास तिलमिलाहट बौद्ध धर्म के नाम पर अराजकता फ़ैलाने वालों पर है।
जहां तक मुझे पता है महात्मा बुद्ध कहते थे
  *अहिंसा परमोधर्म:*
तो फिर आप मांस का भक्षण क्यों करते हो ये कौन सी अहिँसा के अंतर्गत आता है।

अब आगे की बात करते हैं जो बाबा साहेब का नाम लेकर भगवन राम और भगवन कृष्ण के नाम पर उलटी सीधी बातें गढ़ते हो ये आपके बाबा ने कौन से आरक्षण या संविधान में लिखा की महापुरुषों का अपमान करो अरे रामायण काल और महाभारत काल में तो कर्म व्यवस्था के आधार पर वर्ण व्यवस्था थी।
अगर इतने ही विद्वान् हो तो बनावटी बातों से बाहर निकल कर इन महापुरुषों पर गहन अध्ययन करो हजारों उदहारण मिल जायेंगे।

वैसे भी आपके बाबा साहब ने जो किया वो अकेले तो किया नहीं उसमें उनकी राजनीति थी और कुछ इनकी और कुछ बिगड़े हुए हालात।
इसमें राम और कृष्ण का क्या दोष और इन महापुरषों पर न तो महात्मा बुद्ध ने कोई अध्ययन या टिप्पड़ी की न ही बाबा साहब ने।
और आज आपने मान लिया की आप पंगु हो मतलब रस्ते खुद तय नहीं करोगे।

बाबा विदेश में जाकर पढ़े कानून की पढाई पढ़ी उन्होंने यह कब और कहाँ लिखा की उन्होंने वेदों का अध्ययन किया, उपनिषद और स्मृतियों का अध्ययन किया?
या उन्होंने यह कब कहा कि हमने मुस्मृति पर शोध किया और उसमें  की गयी मिलावट को परिवर्तित किया क्यों कि हमारे विद्वानों का मानना है कि हमारी संस्कृति, गुरुकुलों, न्यायव्यवस्था को ध्वस्त किया गया और हमारे धार्मिक ग्रंथ क्यों की विद्वानों को कंठस्थ भी थे तो पूरी तरह ध्वस्त नहीं कर पाए तो उनको विकृत कर दिया गया।
कुछ भ्रमित बातें जोड़ दी गयीं। राम और कृष्ण का चरित्र तक बिगाड़ने का हर संभव प्रयास किया गया।
आज योगेश्वर श्री कृष्ण को तो सिर्फ गोपियों के साथ एक रासलीला करने वाला बनाने में विधर्मियों को कामयाबी मिल रही है।

आपके बाबा साहब के पहले जन्में थे संत रविदास, संत कबीर, संत नानक, दादू------

क्या ये सब ब्राह्मण थे नहीं ना तो फिर इन्होंने तो कभी भी राम, कृष्ण का मजाक नहीं बनाया।

इन सबके बाद और आपके बाबा साहब के पूर्व पैदा हुए थे-- स्वामी दयानन्द सरस्वती ब्राह्मण परिवार में जन्में मूर्ती पूजा के विरोधी थे।
महान विद्वान स्वामी जी ने बरसों तक गहन अध्ययन किया वेद, उपनिषद, स्मृतियां------
दुनियां के कई धर्मों की धार्मिक पुस्तक रीत रिवाजों का अध्ययन किया------

और तब कहीं जाकर उन्होंने महान ग्रन्थ *सत्यार्थ प्रकाश* की रचना की।
स्वामी जी श्री राम और श्री कृष्ण का हमारे समाज में जो चरित्र फैलाया जा रहा उससे व्यथित थे।

लेकिन आप लोग आज कल बड़े ठाठ से जय भीम बोलते हो वो तुम्हारी इच्छा लेकिन हमारे सनातन धर्म का,श्री राम और श्री कृष्ण का तमाशा बनाने का हक़ किसने दिया।

अंत में एक
सन्देश उन लोंगो के नाम जो काम बाद में करते जाति पहले पूछते हैं।
आप लोग भी सुधर जाओ तो अच्छा है ये जो हमारे पूर्वजों का तमाशा बना है उसके पूरे जिम्मेदार हो।
अरे कुछ तो सोंचों इस सबसे मिट कौन रहा है।
टुकड़ों में बिखरकर क्या हासिल कर रहे हो।
भेड़ चाल में स्वार्थी न बनो।

मत भूलो इसी बिखराव के कारण मिट रहे हो जो जनेऊ जलाए गये थे सदियों पहले और उससे पैदा हुई ये जाति-पांति------ कहीं तुम्हारा अस्तित्व् ही न जला दे------

नोट-
किसी की भावनाओं को चोंट पहुँचाना मेरा इरादा नहीं किसी को दुःख पहुंचे तो क्षमा प्रार्थी हूँ।
मैं एक हिन्दू हूँ मैं एक आर्य हूँ और यह हक़ न मुझसे कोई सवर्ण छीन सकता न दलित।
हमारा धर्म सनातन है जिसका न कोई आदि है न अंत।
इसपर कीचड उछाल कर अपनी महान अज्ञानता का परिचय न दें।

मेरे विचार-----मेरी कलम से----✍🏻

दिन-सोमवार

दिनांक-24/09/2018

शिवकान्ति आर कमल
(तनु जी)

Saturday, September 22, 2018

एक अहसास परमात्मा के नाम

एक अहसास परमात्मा के नाम...

जब जब मैं घायल थी मेरे जख्मों पर सिर्फ तेरी नजर थी|
 कातिल चोंट देता रहा और मैंने उफ तक न की बड़ा बेचैन था वो यह सोंचकर कि मेरा हमसफर कौन है!!!!!
उसे क्या पता था जब भी वो खंजर घोंप रहा था मेरा प्रभु मेरा कवच बनकर खड़ा था|
न जाने कौन सी ताकत थी जो मेरी दुबली पतली काया में जोश भर देती थी|

कातिल देख रहा था कि मैं अभी उसके छल के आगे घुटने टेक दूंगी|
लेकिन मैं हर बार आगे निकल गयी वो जाल बिछाये रास्ते में खड़ा रह गया|

लोगों को लगा कि मैं अभिमानी हूं, मेरा जर्रा जर्रा घायल था परन्तु मेरी राहों में उम्मीद का एक चिराग लिये परमात्मा मेरी हमसफर था... क्यूं कि सिर्फ उसे ही पता था कि मैं अभिमानी नहीं स्वाभिमानी हूं.....

परमात्मा से मैंने पूछा कब तक यूं ही साथ चलोगे....
उसने कहा जब तक तुम्हारे कदम रूक नहीं जाते....
मैंने कहा मेरे कदम कब तक नहीं रुकने चाहिये...
उसने कहा जब तक मंजिल न मिल जाये....

मैं तड़प रही थी दर्द में,
मैं कराह रही थी दर्द से,
चलने की ताकत न थी फिर भी लड़खड़ाते हुये चल रही थी|
कातिल हँसना चाहता था मेरे हालात पर फिर भी हँस नहीं पा रहा था....क्यूं कि उसके लिये यह असनीय था कि मुझमें अब भी जान बाकी है||||||

मैं नजर घुमाकर देखा मेरी जान की हिफाजत में परमात्मा कवच बनकर खड़ा था.......

मैं फटेहाल थी और कातिल बैठा था दौलत के गद्दे पर......
मैंने देखा उसका बौखलाया हुआ चेहरा, तमतमाया हुआ चेहरा...वो चीख पड़ा ओ महारानी मैं तुझसे सबकुछ छीन लूंगा!
मेरे मन में अजीब सा हर्ष हुआ शायद मेरे स्वाभिमान के कारण मैं उसे भिखारी रूप में भी महारानी लग रही थी...

मेरे हमसफर ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा..धीरे धीरे आगे बढ़ो अभी मंजिल तक पहुंचना बाकी है....
मैं धीरे धीरे मन बुदबुदायी....हां मजिल तक पहुंचना बाकी है....... और मैं फिर से चल दी एक अंजान राह पर...तब तक न रूकने की कसम लेकर जब तक कातिल धूमिल न हो जाये..और मुझे पाकर मेरी मंजिल की प्यास न बुझ जाये.......

ओ३म् परमात्मने नम:

मेरे अहसास मेरी कलम से....
०१/०१/२०१८
शिवकान्ति आर कमल ( तनु जी )

Thursday, September 20, 2018

आकर राख बना दो तुम

पढ़िये वियोग श्रृंगार पर मेरी एक रचना.....

दिनांक
२०/०३/२०१८

"आकर राख बना दो तुम"

आखिर बार सजा दो तुम,
या फिर आज "सजा" दो तुम!!!
कब तक धड़कन रोके रखूं,
आकर मुझे बता दो तुम!!!!!

निज हाथों से मुझे सजाओ,
चूड़ी, कंगन लेकर आओ,,,,
ले गये थे जो,
 संग अपने,
वो भी धड़कन लेकर आओ!!!!
दूर रहो ओ सखी तुम हमसे,
दूर देश हैं पिया बुलाओ,,,,,

अंग मिलन की चाहत नाहीं,
रूह से रूह को मिला दो तुम!!!!
…………………………

इक रूह और दो अँखियाँ मेरी,,,,
देख रही हैं राहें तेरी!!!!!
आ भी जाओ अब ओ साजन,
चाहत की है निशा घनेरी!!!!!

इन सूखी सी अँखियन को,
आकर घटा बना दो तुम!!!!
…………………………

दूर करो श्रृंगार सखी,
अंग-अंग मैं,
उनको पहनूं,,,,
खुश्बू अपने प्रियतम की,,,,
अंतिम सांसों में तो,
भर लूं!!!!!

निज नैंनों से इन नैनों का,
चिलमन आज बना दो तुम!!!!
…………………………………

कैसे कहूं मैं,
अपने मन की!!!!!
सुध-बुध नहीं है,
मुझको तन की!!!!!
जल-जल कर मैं खाक हो गयी,
अँखियाँ काली,
बिन अंजन की!!!!!

जली खड़ी हूं,
तरु के जैसी,,,
आकर राख बना दो तुम!!!!!
कब तक धड़कन रोके रखूं,,,,
आकर मुझे बता दो तुम-----

शिवकान्ति आर कमल
( तनु जी )

Wednesday, September 19, 2018

शायरी

लगा सको तुम बोली इसकी,
ऐसी कोई कीमत नहीं होती------

ये मुहब्बत है दोस्तों------
जो दिल से कभी,
 रुख्शत नहीं होती------

जो खुद को भी देखे आईने में

"""संदेह भरी नजरों से"""

ऐसी नज़रों को कभी किसी से?
मोहब्बत नहीं होती-------

20/09/2018
शिवकान्ति आर कमल
(तनु जी)

ये कैसी दौलत

ये कैसी दौलत....

एक अमीर आदमी था उसे धन के अलावा किसी से प्रेम नहीं था| आप लोग क्या समझे? धन? मतलब रिस्ते नाते नहीं, उसे सोना, चाँदी, प्रॉपर्टी और रूपये से प्रेम था| हर पल अभिमान के नशे में चूर रहता कि मैं तो बहुत अमीर हूं इसलिये सब मेरे तलवे चाटेंगे|
वो अपना धन घर के सदस्यों से छुपाकर रखता हमेशा रखवाली करता| घर के सदस्यों से बहुत गंदा व्यवहार करता तुम सब मेरे टुकड़ों पर पलते हो जब चाहूं तब घर से निकाल फेकूं| उसकी बदसलूकी से तंग आकर एक दिन सब उसके जीवन से चले गये| वह अकेला इतराता फिरता कुछ ही दिनों में उसके पास कुछ कुत्तों ने ठिकाना बना लिया वो उन्हें रोटी के कुछ टुकड़े डाल देता और खुद को राजा समझता वो भूल गया कि अपने परिवार के साथ वफा न रखने वाले के साथ कुत्ते तक वफादारी नहीं करते|
एक दिन कुत्ते ने उसका तलवा चांटते समय उसे ऐसा काटा कि वो दोबारा कभी नहीं चल पाया|

वो विस्तर पर पड़ा था और कुछ कुत्ते हर दिन उसके कलवे चांट रहे थे क्यूं कि उन्हें पता था जो जहर वो उसके अन्दर डाल चुके हैं उससे अंत निश्चित है तो थोड़े दिन और तलवे चांटने में क्या जाता है......

आज कुछ कुत्ते उसकी मौत पर खुशी से रो रहे थे मालिक कहां चले गये हमें छोड़कर अब आपका क्रियाकर्म कौन करेगा हम तो कुत्ते हैं ना........हम तो अपना भोजन भी किसी के साथ नहीं बांटते फिर जो दौलत अपने परिवार वालों से छुपाकर आपने रखी उसे आपके क्रियाकर्म में कैसे खर्च कर सकते हैं इसी के लिये तो हमने तलवे चांटे थे.....

जो व्यक्ति रिस्तों के साथ गेम खेलता है परमात्मा उसके साथ गेम खेलता है!!!!!
धीरज रख रे बंदे,,,,
तेरे हर गुनाह को वो हरपल,
देखता है.....

ओ३म् परमात्मने नम:

मेरी कलम से...
२६/१२/२०१७
शिवकान्ति आर कमल ( तनु जी )

Monday, September 17, 2018

"हैं जख्म मेरे कातिल''


हैं जख्म मेरे कातिल....

ये कसमकश की घड़ियाँ,
हैं जख्म मेरे कातिल!!!!!
नमकीन है ये दरिया,
उस पार मेरा साहिल!!!!!

छूती हूं जब मैं पानी,
जलते हैं जख्म मेरे!!!!!
सो जाती हैं थक कर आँखें,,,,,
चलते हैं जख्म मेरे!!!!!!

घनघोर है अँधेरा,
साया भी गुम हुआ है!!!
मैं वज्र हो गयी हूं,
कातिल भी दुम हुआ है!!!!!

पक गये मेरे गोखरू,
चलने का शौक पाला,,,,,
बनकरके वैद्य हमने,
खुद को ही चीर डाला!!!!!!

तू खेल खूब खिलाड़ी,
बाजी हमारी होगी,,,,,,,
चाल तू चलेगा,
राजी हमारी होगी!!!!!

नरभक्षी दरख्त है तू,
अमरबेल मैं बनूंगी!!!!
नाक तेरी होगी,
नकेल मैं बनूंगी!!!!!

तुझे सूखना पड़ेगा,
मुझे सूखने से पहले,,,,,
तुझे टूटना पड़ेगा!!!!!
मेरे टूटने से पहले......

मैं हूं अजब कहानी,
जो समझ तू ही न पाया,,,,
मासूम इक कली को,
था शूल खूब बनाया!!!!!

जो समझ न सके ये,,,
लगती मैं उनको जाहिल!!!!!
ये कसमकश की घड़ियाँ,
हैं जख्म मेरे कातिल!!!!!

स्वरचित- ०३/१२/२०१७


शिवकान्ति आर कमल
(तनु जी)

Thursday, September 13, 2018

जब मांझी ही मेरा भंवर बन गया

लाख कोशिश करी,,,,,
लेकिन बच न सके......
जब मांझी ही मेरा,,,,,,
भंवर बन गया.......

वो दरिया भरा,,,,,,
आग से था ओ यारों......
था पानी समझकर,,,,,,,
जिधर मन गया.......

हम तड़पते रहे,,,,,,,
रूह यह जलती रही......
देखो काया यह,,,,,,
उठ उठ सम्भलती रही.......

मेरा दिल, मेरे दिल से......
अलग हो गया......
सपने सोते गये,,,,,,
और मैं जगती रही......

न चाहतें मेरी,,,,,
रास आयीं उन्हें,,,,,,,
वो मेरे...नैंनों का भी,,,,,
लेके दर्पन गया......

वो दरिया भरा.................मन गया..

दिल का मासूम होना,,,,,,
गुनाह हो गया......
सभी फूल जी भरके,,,,,,
कांटे बने......

दिल की रौनक समझ,,,,,,
हम गये थे जहां......
उनकी महफिल में,,,,
हम ही तमाशे बने.......

मेरे खामोशी का आलम,,,,,,
गजब था बड़ा,,,,,,
हम रोते रहे,,,,,,
ओंठ हंसते रहे......

बाग ख्वाबों का था,,,,,,
अब उजड़ सा गया,,,,,,,
बन शबाब हम,,,,,
महफिल में सजते रहे.......

दिल की दुनिया से देखो,,,,,
मैं विधवा हुयी.......
हुश्न के तमाशे में,,,,,,
बदन बन सुहागन गया..........

वो दरिया भरा...................मन गया

स्वरचित_०७/०३/२०१७

नोट_कॉपी पेस्ट वर्जित

शिवकान्ति कमल (तनु)

Wednesday, September 12, 2018

महिला के स्वाभाव परिवरतन पर एक लघु लेख

सभी सज्जनों एवं बहनों को शुभसंध्या....

प्रियजनों आज एक स्त्री के कर्कश स्वाभाव पर अपने कुछ विचार लिखने का मन किया.....

हमारे धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि कर्कश स्वभाव वाली स्त्री का घर शांतिविहीन होता है| एक कर्कशा कभी पतिप्रिया नहीं होती|
मैं स्त्री होने के नाते यही कहूं स्त्री का स्वभाव सुशील एवं विनम्र होना अति आवश्यक है क्यूं कि स्त्री से घर का सृजन होता है|
परन्तु आप सबने यदि ध्यान दिया होगा हमारे समाज में हमारे आस पास कोई विधवा या तलाक सुधा स्त्री का स्वाभाव परिवर्तन हो जाता है वह कर्कश हो जाती है लोगों को चुभने लगती है| खुद को सभ्य कहने वाले लोग उसके स्वभाव को पसंद नहीं करते दूर भागते हैं| लेकिन कभी सोंचा है ऐसा क्यूं होता है|
पहली बात तो स्त्री ही स्त्री को नीचा दिखाती है अपमानित करने की कोशिश करती है| एक स्त्री जो विधवा या तलाक सुधा है उससे अपने पति को ऐसे छुपाती घूमेगी जैसे कोई मिठाई का बॉक्स हो| अब पुरुष समाज की बात करो एक अकेली औरत को देखा नहीं कि सौ बहाने लेकर पड़ जाते हैं पीछे| ऐसे में यदि अकेली महिला सभ्यता पूर्वक समझाना चाहे तो मनचले पुरुषों को समझ नहीं आता यहां तक कि ऑफिस, समाज में उसका मजाक बना देते हैं वो मैडम तो फलां आदमी के चक्कर में हैं या फिर देखो वो आज मुझसे बड़े प्रेम से समझा रही थी लगता है जल्दी ही बात बन जायेगी|
एक महिला जो पहले से हालातों की मारी है हर दिन कैसे हालातों से जूझती है उसे बार बार अकेले होने का अहसास दिलाया जाता है| न चाहते हुये भी विक्रत दिमांग लोग उसके आगे पीछे मँडराते हैं| ऐसे में वह स्त्री क्या करे वो भूल जाती है अपनी शालीनता, अपना मूल स्वभाव, भूल जाती है अपनी कोमलता और कमर कस लेती ऐसे लोगों को उनकी भाषा में समझाने के लिये| जब वो खुद को समाज से लड़ने के लिये तैयार कर लेती है तब उसे सनकी, झगड़ालू, बिगड़ैल कहा जाने लगता है|

ओ३म् परमात्मने नम:

मेरे विचार मेरी कलम से....

३१/१२/२०१७

शिवकान्ति आर कमल ( तनु जी )

Tuesday, September 11, 2018

खोया बहुत कुछ मोहब्बत में हमने,
न मोहब्बत मिली,
न वफ़ा ही मिली-----

गले से लगा ले ओ तन्हाई,,,,,
अकेले ही मंजिल को पाना है अब------

११/०९/२०१८
शिवकान्ति आर कमल
(तनु जी)

Sunday, September 9, 2018

श्री अटल जी की स्मृति में


उत्तर से लेकर दक्षिण तक,
पश्चिम से लेकर पूरब तक-------
निर्जन से लेकर,
जन-जन तक------
और उनसे लेकर,
हम सब तक------

इस देश में भगवा लहराता,
गर साथ जो तुमको मिल जाता---
अधर्म तुमसे थर्राता,
गर साथ जो तुमको मिल जाता----

खूब रूह तुम्हारी तड़पी होगी,
तन्हा छाती फटती होगी----
चहुँ ओर देख गद्दारों को,
मन की धुंध न घटती होगी----

इस देश को अपना कहने वाला,
हर हाथ जो तुमको,
मिल जाता------
अधर्म तुमसे थर्राता,
गर साथ जो तुमको मिल जाता----

वो धरती माँ का लाल था सच्चा,
मैदान ए जंग में!
"ज्वाला था-----"
शब्दों का था जादूगर,
वो कवि बड़ा मतवाला था-----

सुन करके हुंकार तुम्हारी,
हर पापी तरुवर हिल जाता----
अधर्म तुमसे थर्राता,
गर साथ जो तुमको मिल जाता----

वो निश्छल आँखें कहाँ गयीं,
वो सरल सी चितवन कहाँ गयी---
गुंजायवान है हवा यहाँ,,,,,
कवि! गुंजन तेरी कहाँ गयी----

न जाने कितने दिल टूटे हैं,
खुद में ही खुद से रूठे हैं----
काव्य जगत भी पूछ रहा,,,
वो धड़कन मेरी कहाँ गयी----

धर्म की पावन धरती पर,
धर्म, धर्म ही इठलाता----
गर साथ जो तुमको,
मिल जाता-----
अधर्म तुमसे थर्राता,
गर साथ जो तुमको
मिल जाता-------


स्वरचित
दिन-शनिवार

दिनांक-०8/०९/२०१८

शिवकान्ति आर कमल
(तनु जी)

Friday, September 7, 2018

नफ़रत नहीं मेरा किरदार है



*नफरत नहीं मेरा किरदार है*

जमाने से जमकर फँसाने हुये,,,,,
फिर भी हम उनके,
दीवाने हुये!!!!!
पल-पल घरौंदे उजड़ते रहे,,,,
फिर भी इस दिल में,
घराने हुये&&&&&

वज्र पड़ते रहे,
धरा तपती रही||||
उम्मीदों की घड़ियाँ भी,
हँसती रहीं......

कोई था.....मगन....
कोई नम सा हुआ,,,,,
कोई गम में भी होकर,,,,
मरहम सा हुआ||||

हर *ऊषा* किसी की,
*निशा* सी हुयी.....
किसी का सबेरा,
जखम सा हुआ!!!!!!

हर घड़ी जिंदगी है,
चुनौती यहाँ.........
वक्त पर न किसी की,
बपौती यहाँ.......

दर्द की हर घड़ी में,
जो पतवार है.....
मुझमें समाया मेरा,
यार है.......

मुहब्बत में मिट जाऊँ,
मन्जूर मुझको.....
*नफरत नहीं मेरा*
*किरदार है*

दुआओं में वो है,
वफाओं में हम हैं.......
*मेरे दिल में तेरे, कैदखाने हुये*
जमाने से जमकर फँसाने हुये,,,,,,
फिर भी हम उनके,
दीवाने हुये.......

*स्वरचित*
दिन- सोमवार
दिनांक १८/०६/२९१८

नोट- एडिटिंग कॉपी पेस्ट वर्जित

शिवकान्ति आर कमल
( तनु जी )

Thursday, September 6, 2018

"बड़े अजीब हो तुम"



बड़े अजीब हो तुम

सुनो ना,
बड़े अजीब हो तुम,
फिर भी मेरे दिल के,
करीब हो तुम!!!!!!

जब भी तुम घर से बहार जाते हो,
मैं तुम्हें देखती रहती हूँ,
चुपचाप सी,
खामोश सी!!!!!
आज मन किया था,
रोक लूं तुम्हे,
फिर सोंचा कल बच्चों के लिये,
भोजन कहां से आयेगा,,,,
फिर मैंने रोक लिया,
अपने कदमों को!!!!!!
और देखती रह गयी,
तुम्हें जाते हुये,,,,,,

तुम्हारी आँखें थकी सी थीं,
तुम सो जाते तो,
कल बच्चे भूख से न सो पाते!!!!!
बस इसी लिये खड़ी रह गयी,
चुपचाप सी!

सुनो ना,

माना कि वक्त ने मुझे,
जिद्दी और गुस्सैल बना दिया है,,,,,
लेकिन मेरे दिल में,
हरपल तुम रहते हो,
मेरे ख्वाबों, ख्यालों और
सवालों, जवाबों में,
बस तुम रहते हो!

जब तुम अपना वादा,
पूरा नहीं कर पाते,
मैं सिहर उठती हूं अन्दर से,,,,
फिर सुनाती हूँ तुम्हें,
खरी खोटी!!!!!!
जानती हूं तुम झूठे नहीं,
परिस्थितियाँ है झूठी!!!

तुम चलते हो दिन रात,
दो जून की,
जुटाने को!!!!
कल तुम आये थे सपने में,
अपने जख्म दिखाने को!!!!

नींद टूट गयी,
मन व्यथित हो उठा,
मैं सारी रात तुम्हें,
पुकारती रही!!!!!

सुनो ना,

बहुत कुछ अनकहा,
सा रह जाता है:::::
सारे स्वर एक तरफ,
हमारा जीवन,
अं, अ: सा रह जाता है!
तुम भी मुझे,
जली कटी न सुनाया करो,
दिल का दर्द,
आँखों से समझ,
जाया करो!

दिल ने कहा बड़े,
अजीब हो तुम,
फिर भी दिल के,
करीब हो तुम!!!!!
फिर भी दिल के,
करीब हो तुम.....
फिर भी.......

%%%%%%%%%%%%
स्वरचित-१७/०९/२०१७
नोट-एडटिंग कॉपी पेस्ट वर्जित
शिवकान्ति आर कमल
(  तनु जी )

Tuesday, September 4, 2018

मन पवित्र तो सब पवित्र

*मन पवित्र तो सब पवित्र*

घर, परिवार में हों,
या हों बाजार में,

दुनिया की भीड़ हो,
या हो निर्जन-------
हृदय के धरातल से पुकारता है जब,
वो माथे का चुंबन और
पवित्र आलिंगन-------

नाम लेते ही उसका,
महसूश होता है,
एक आवरण सा-----
पवित्र मन की गहराई के समंदर में!

प्रेम, स्नेह और भरोसे के अथाह मोती भरकर-------
ईश्वर ने कलम चलायी होगी,
खूब संभल-संभल कर****

पुकारने वाले को जिस शब्द,
में न हो कठिनाई----
उस शब्द को नाम दे दिया *भाई*

रिस्ता खून का था या पराया,
फर्क करना मुश्किल हो गया-----
जब फंसने लगे कसमकश के भंवर में।।।।।
तब वो शाहिल हो गया-----

एक पल में बदल जाता है,
दुनिया के देखने का अंदाज---
मन मंदिर में बजते हैं,
ईश्वर के बनाये कुछ साज-----

इस देश की संस्कृति का इतिहास,
भरा है,,,,
रिस्तों के त्याग और बलिदान से----
लेकिन बदकिस्मती तो देखो जरा,,,,
निज नया इतिहास रच देते हैं।।।।
दिमांग से होशियार और पश्चिमी लोग------

तब ससंकित हो उठती है पवित्रता भी,,,,,
और मेरे हृदय पटल का विशाल समंदर,
शोक में डूब सा जाता है-----

इस बदली हुई सोंच,
और भेड़ चाल में भी-------

अड़ा है वो रिस्ता,
 सर्पों से लिपटे,,,
चन्दन की तरह------
शांत, शीतल, सुखद और अडिग------

दो शब्दों की गहराई,
यदि समझ जाये,,,,
यह बदली हुई संस्कृति-----

तो संस्कार विहीन सडकों पर,
गूंज उठे फिर गाथाएं,
पवित्र बंधन और पवित्र मन की-----

समेटने लगें अपना आवरण,
अर्धनग्न घूमती स्त्रियां----
यदि उन्हें घूरने वाली आँखों का,
अंदाज बदल जाये------

यदि बदलाव इतना ही जरुरी है,,,,,
तो बदल दो यह सोंचना की वह मेरी नही किसी और की बहन है,,,
यह मेरा नही किसी और का भाई है--------


*मन पवित्र तो तन पवित्र*
*तन पवित्र तो सब जन पवित्र*

*देखो तो पवित्र नज़रों से----*
*यहाँ महफ़िल भी पवित्र और,*
*निर्जन भी पवित्र*

स्वलिखित
दिन- बुधवार
दिनांक
05/09/2018

निर्देश- एडेटिंग, कॉपी पेस्ट वर्जित

शिवकान्ति आर कमल
(तनु जी)

"न ज्ञान समंदर मुझमें है"

..

दिन-शनिवार

दिनांक-२८/०४/२०१

न ज्ञान समंदर मुझमें है,
जो मैं पंडित कहलाऊँ!
निज भुजाओं में वो बल नहीं,
कि मैं क्षत्राणी बन जाऊँ!!!

न वैश्य मुझे तुम समझो जी,
न ही मैं व्यापार करूं!!!
तुम समझ रहे हो शूद्र मुझे,,,
क्यूं अछूत मैं कहलाऊँ|||

जब धर्म सनातन अपमानित हो,
तब मैं पंडित बन जाती!!!!

निज स्वाभिमान पर वार न करना,,,,,
फिर मैं ज्वाला बन जाती|||

जब भूख से अपने तड़प रहे हों,
तब जल और अन्न जुटाऊँ मैं|||

फिर तन मन को जब साफ करूं?
तभी शूद्र कहलाऊँ मैं||||

जाति पूछ कर मेरी तुम, जाते कहां हो पता करो!!!
जाँति-पाँति के चक्कर में,
मर मिटने की न खता करो!!!

मुगल आये जब भारत में,,,
तब वर्ण हमारी जाति हुआ,,,,
फिर इसने -उसने हमको चूसा,,,
यह शोषण-शोषण राग हुआ|||

न वेद का ज्ञान धराते हो,
न गीता ही पढ़ पाते हो...
इसकी-उसकी सुन-सुनकर,
गला फाड़ चिल्लाते हो!!!

नशेड़ी कहे ब्राह्मण खुद को,,
महाराजा दलित कहाता है||
सच नहीं करे स्वीकार कोई,
हिंदू मिटता जाता है|||

हम न किसी से डरने वाले,
न परिवर्तन करने वाले|||
छाती ठोंक के कहते हैं,
हम श्रृष्टि संवत, पढ़ने वाले|||

राम राज के शंभुक, धोबी
आकर मुझे गिनाते हो||
वैदिक धर्म में जाति नहीं थी,,,
कभी इसका ध्यान लगाते हो|||

वर्ण व्यवस्था, जाति-पाँति में,,,
अंतर करना सीखो तुम|||
सिर पैर बिना की बातें लेकर,,,
इधर-उधर मत फेंको तुम|||

कभी बैठकर सोंचो तो,
कौन कहाँ से आये थे|||
वेदशाला, कुतुबमीनार हो गयी,,,
नालंदा भी जलवाये थे|||
तेजोमाहल, ताज हो गया,,,,
वो मुगल कला सरताज हो गया,,,,,
अकबर पोथी व्यापक हो गयी,,,,
*हमारे प्रताप*
दो पन्नों में समाये थे||||

झांसी जब वीरान हुयी,
गद्दार एक पिण्डारी था,,,,,
उसका सुपुत्र चाँद मियां,
वो बुड़बक सबपर भारी था||||

उस गद्दार के मन्दिर में,
तुम ओम् साईं चिल्लाते हो|||
चले कहां से, कहां गये हो,
धरातल खोज न पाते हो|||

आदि न जिसका अंत कोई,
वो सनातन धर्म हमारा है|
तुम रंग बदलो हरा औ नीला,,,
इक भगवा रंग हमारा है|||

मेरा ये हक छीनने वाला,,,
हिंदू भी मिल जाये कोई|||
कान के नीचे दो दे दूं,,,
उससे भी टकराऊँ मैं||
फिर नहीं फर्क है पड़ता कोई,,,
ब्राह्मण या दलित कहाऊँ मैं||||



स्वरचित

नोट-एडटिंग कॉपी पेस्ट वर्जित

शिवकान्ति आर कमल
( तनु जी )

Monday, September 3, 2018

"तृष्णा मंजिल पाने की"


यूँ तो हर किसी को लगती थी,
दुल्हन कोई नवेली सी-------
जब करीब से जाना,
तो वो----
अनसुलझी सी पहेली थी-----

उसकी आँखों में देखा,
एक गहन समंदर,
की, थी हमने,
थाह खोजने की कोशिश,,,,,

लेकिन मिली सिर्फ शिथिलता,
और शिथिलता------

वो मौन चित्त साँझ की बेला में,
अथाह कूप लिए,
अपनी आह में,,,,,
देख रही थी सूरज ढलने से पहले,,,,,
रंग बदलती हुयी गोधूल की लालिमा।।।।।
यूँ लग रहा था जैसे कुछ ही पल में,
वो विजय पाना चाहती है,,,,,,
 चलने वाले निरंतर संघर्षों पर-----

हाँ कुछ ही पल तो थे,
सूरज ढलने में जब,
कुरुक्षेत्र में बाजी पलट दी थी योगेश्वर ने------
शायद यही बुदबुदा रही थी वो----


उसकी सरल चितवन में,
जैसे सवालों की झड़ी थी----
लेकिन ओंठ उसके मौन थे।
मैं जाने लगी उसके सवालों का उत्तर देने।

 लेकिन कदम ठिठक गये,,,,,
यह सोंचकर,,,,
खामोश निगाहों के सवाल बहुत ही व्यापक होते हैं।।।।।।

उसके सांसों के आरोह,
अवरोह की ध्वनियां,,,,,,
समेटें थी स्वयं में न जाने कितने,,,,,
काले मेघों की गड़गड़ाहट-----

यूँ लगता था बरस गयीं तो!
बहा ले जाएँगी न जाने कितने,,,
खोखले आदर्शों की बस्तियां---

उसके दिल के रेगिस्तान में,
शायद नदी ने बहने से मना कर दिया----
और उसका कंठ बेहद,
सूखा लग रहा था------

अपने नेत्रपटल बंध करके,
उसमें संचित मेघराज से,
अपनी *तृष्णा* को मिटाने का प्रयास करते हुए,,,,

वो धीरे- धीरे चलने लगी,
किसी अनजाने पथ की ओर----

स्वयं में स्वयं को भीचें हुए-----
तन्हा सी बड़बड़ा रही थी,,,,,,
मंजिल तुझे पाना है,
ऐ मंजिल तुझे पाना है।।।

अपने क़दमों को पूरी ताकत से,
उठाते हुए------
लहूलुहान कदमों से,,,,,
बिना रुके वो फिर चलने लगी-----

आसमां की तरफ देखा और फिर बोली,

!!!!!!!!!!!ऐ मंजिल तू जरूर मिलेगी,
कभी न कभी,
मैं आ रही हूँ खोज में तेरी,

ऐ मंजिल तुझतक आना है,
ऐ मंजिल तुझे पाना है।।।।।।।।

दिन-सोमवार
दिनांक-०३/०९/२०१८

शिवकान्ति आर कमल
(तनु जी)

Sunday, September 2, 2018

मैं तड़पती थी जिस आसमां के लिए---



!!!!!मैं तड़पती थी जिस आसमां के लिये!!!!

घन बरसते रहे,,,,,,
धरा प्यासी रही।।।।।।।
मन काली घटा सी,,,,,,
उदासी रही।।।।।।

मैं तड़पती थी,,,,,
जिस आसमां के लिये।।।।।
उसी की वफा,,,,,,,
बेवफा सी रही।।।।।।।

दिल के दरिया में,,,,,,
ऐसी थी रेती हुयी।।।।।।
मेरी दुनिया एक,
बंजर सी खेती हुयी।।।।।।।

सनम स्वाति हुये,,,,,,,
बूंदें आती नहीं।।।।।
मैं चातक सी,,,,,,
पिय पिय बुलाती रही।।।।।।

जिन्हें चाहा बहुत,,,,,
वो थे छलिया बड़े।।।।।।।।
मैं रोती रही,,,,,
वो थे हँसते खड़े।।।।।।।

मोहब्बत में,,,,,,
अरमां थे धूमिल हुये।।।।।।।
फिर भी यादों की उनकी,,,,,,,,
घटा सी रही।।।।।।।

सांसें कहती हैं, मुझसे,,,,,
क्यूं न आये हैं वो।।।।।।।।
फिर धड़कन में,,,,,
यूं, क्यूं समाये हैं वो।।।।।।।

होश की सारी बातें तो,
छोड़ो सखी।।।।।।।।।
बेशुधी के शिखर तक,,,,,
कराहती रही।।।।।।।।

मैं तड़पती थी,,,,,
जिस आसमां के लिये।।।।।।।
उसी की वफा,,,,,,
बेवफा सी रही।।।।।।।।।

स्वरचित-२८/०७/२०१८


शिवकान्ति आर कमल (तनु जी)

Saturday, September 1, 2018

*हैं अब अजनबी*


वो बागों की कलियाँ,,,,,
और मोहब्बत की गलियां,,,,,,
खुशबू भरा उपवन------
वो झूलों का सावन-------
चाहतों का मंजर,
था मेरे भी अंदर------
वो शर्मीली नजरें,,,
और बालों में गजरे------

तितली का इतराना,,,
फूलों से टकराना-----
हाँ मुझे भी भाते थे कभी,,,,,
मेरे सपने और उनमें,,,
खो जाना------

वो पायल की रुनझुन,
वो चूड़ी की खनखन------
ओंठों में लाली,
और कानों में बाली-----
आइना भी था रूठा,,,
चाहतें थी झूठी-----
न मुझको खबर,,,,
मैं थी कब कैसे टूटी-------

संग मौसम के टकराना,
और उससे बतियाना-----
हाँ मुझे भी भाते थे कभी,,,,,,
मैं सांसों में बसाये थी जो,,,,
एक आशियाना-------

याद आते बहुत हमको,
जख्मों के मंजर,,,,,,
फिर रुलाते बहुत,
हमको धोखे के,
खंजर//////
चाहतें मेरी जब,,,
दफ़न सी हुयीं------
तिल-तिल तड़पे थे हम---
देखकर वो, बवंडर------

मोहब्बत से रहना,
मुहब्बत में बहना-----
गुस्सा भी थोड़ा,
नजाकत से कहना------
हाँ मुझे भी भाते थे कभी---
मैंने दिल में जो,
बनाये थे,
मोहब्बत के अँगना-------


हैं अब अजनबी?
वो सब अजनबी-----?
न जाने कहाँ गये,,?
या हो गए अजनबी------?
जो मुझे भाते थे कभी-----
जो मुझे भाते थे कभी--------


दिन-शनिवार
दिनांक 01/09/2018

शिवकान्ति आर कमल
(तनु जी)