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दिन-शनिवार
दिनांक-२८/०४/२०१
न ज्ञान समंदर मुझमें है,
जो मैं पंडित कहलाऊँ!
निज भुजाओं में वो बल नहीं,
कि मैं क्षत्राणी बन जाऊँ!!!
न वैश्य मुझे तुम समझो जी,
न ही मैं व्यापार करूं!!!
तुम समझ रहे हो शूद्र मुझे,,,
क्यूं अछूत मैं कहलाऊँ|||
जब धर्म सनातन अपमानित हो,
तब मैं पंडित बन जाती!!!!
निज स्वाभिमान पर वार न करना,,,,,
फिर मैं ज्वाला बन जाती|||
जब भूख से अपने तड़प रहे हों,
तब जल और अन्न जुटाऊँ मैं|||
फिर तन मन को जब साफ करूं?
तभी शूद्र कहलाऊँ मैं||||
जाति पूछ कर मेरी तुम, जाते कहां हो पता करो!!!
जाँति-पाँति के चक्कर में,
मर मिटने की न खता करो!!!
मुगल आये जब भारत में,,,
तब वर्ण हमारी जाति हुआ,,,,
फिर इसने -उसने हमको चूसा,,,
यह शोषण-शोषण राग हुआ|||
न वेद का ज्ञान धराते हो,
न गीता ही पढ़ पाते हो...
इसकी-उसकी सुन-सुनकर,
गला फाड़ चिल्लाते हो!!!
नशेड़ी कहे ब्राह्मण खुद को,,
महाराजा दलित कहाता है||
सच नहीं करे स्वीकार कोई,
हिंदू मिटता जाता है|||
हम न किसी से डरने वाले,
न परिवर्तन करने वाले|||
छाती ठोंक के कहते हैं,
हम श्रृष्टि संवत, पढ़ने वाले|||
राम राज के शंभुक, धोबी
आकर मुझे गिनाते हो||
वैदिक धर्म में जाति नहीं थी,,,
कभी इसका ध्यान लगाते हो|||
वर्ण व्यवस्था, जाति-पाँति में,,,
अंतर करना सीखो तुम|||
सिर पैर बिना की बातें लेकर,,,
इधर-उधर मत फेंको तुम|||
कभी बैठकर सोंचो तो,
कौन कहाँ से आये थे|||
वेदशाला, कुतुबमीनार हो गयी,,,
नालंदा भी जलवाये थे|||
तेजोमाहल, ताज हो गया,,,,
वो मुगल कला सरताज हो गया,,,,,
अकबर पोथी व्यापक हो गयी,,,,
*हमारे प्रताप*
दो पन्नों में समाये थे||||
झांसी जब वीरान हुयी,
गद्दार एक पिण्डारी था,,,,,
उसका सुपुत्र चाँद मियां,
वो बुड़बक सबपर भारी था||||
उस गद्दार के मन्दिर में,
तुम ओम् साईं चिल्लाते हो|||
चले कहां से, कहां गये हो,
धरातल खोज न पाते हो|||
आदि न जिसका अंत कोई,
वो सनातन धर्म हमारा है|
तुम रंग बदलो हरा औ नीला,,,
इक भगवा रंग हमारा है|||
मेरा ये हक छीनने वाला,,,
हिंदू भी मिल जाये कोई|||
कान के नीचे दो दे दूं,,,
उससे भी टकराऊँ मैं||
फिर नहीं फर्क है पड़ता कोई,,,
ब्राह्मण या दलित कहाऊँ मैं||||
स्वरचित
नोट-एडटिंग कॉपी पेस्ट वर्जित
शिवकान्ति आर कमल
( तनु जी )
दिन-शनिवार
दिनांक-२८/०४/२०१
न ज्ञान समंदर मुझमें है,
जो मैं पंडित कहलाऊँ!
निज भुजाओं में वो बल नहीं,
कि मैं क्षत्राणी बन जाऊँ!!!
न वैश्य मुझे तुम समझो जी,
न ही मैं व्यापार करूं!!!
तुम समझ रहे हो शूद्र मुझे,,,
क्यूं अछूत मैं कहलाऊँ|||
जब धर्म सनातन अपमानित हो,
तब मैं पंडित बन जाती!!!!
निज स्वाभिमान पर वार न करना,,,,,
फिर मैं ज्वाला बन जाती|||
जब भूख से अपने तड़प रहे हों,
तब जल और अन्न जुटाऊँ मैं|||
फिर तन मन को जब साफ करूं?
तभी शूद्र कहलाऊँ मैं||||
जाति पूछ कर मेरी तुम, जाते कहां हो पता करो!!!
जाँति-पाँति के चक्कर में,
मर मिटने की न खता करो!!!
मुगल आये जब भारत में,,,
तब वर्ण हमारी जाति हुआ,,,,
फिर इसने -उसने हमको चूसा,,,
यह शोषण-शोषण राग हुआ|||
न वेद का ज्ञान धराते हो,
न गीता ही पढ़ पाते हो...
इसकी-उसकी सुन-सुनकर,
गला फाड़ चिल्लाते हो!!!
नशेड़ी कहे ब्राह्मण खुद को,,
महाराजा दलित कहाता है||
सच नहीं करे स्वीकार कोई,
हिंदू मिटता जाता है|||
हम न किसी से डरने वाले,
न परिवर्तन करने वाले|||
छाती ठोंक के कहते हैं,
हम श्रृष्टि संवत, पढ़ने वाले|||
राम राज के शंभुक, धोबी
आकर मुझे गिनाते हो||
वैदिक धर्म में जाति नहीं थी,,,
कभी इसका ध्यान लगाते हो|||
वर्ण व्यवस्था, जाति-पाँति में,,,
अंतर करना सीखो तुम|||
सिर पैर बिना की बातें लेकर,,,
इधर-उधर मत फेंको तुम|||
कभी बैठकर सोंचो तो,
कौन कहाँ से आये थे|||
वेदशाला, कुतुबमीनार हो गयी,,,
नालंदा भी जलवाये थे|||
तेजोमाहल, ताज हो गया,,,,
वो मुगल कला सरताज हो गया,,,,,
अकबर पोथी व्यापक हो गयी,,,,
*हमारे प्रताप*
दो पन्नों में समाये थे||||
झांसी जब वीरान हुयी,
गद्दार एक पिण्डारी था,,,,,
उसका सुपुत्र चाँद मियां,
वो बुड़बक सबपर भारी था||||
उस गद्दार के मन्दिर में,
तुम ओम् साईं चिल्लाते हो|||
चले कहां से, कहां गये हो,
धरातल खोज न पाते हो|||
आदि न जिसका अंत कोई,
वो सनातन धर्म हमारा है|
तुम रंग बदलो हरा औ नीला,,,
इक भगवा रंग हमारा है|||
मेरा ये हक छीनने वाला,,,
हिंदू भी मिल जाये कोई|||
कान के नीचे दो दे दूं,,,
उससे भी टकराऊँ मैं||
फिर नहीं फर्क है पड़ता कोई,,,
ब्राह्मण या दलित कहाऊँ मैं||||
स्वरचित
नोट-एडटिंग कॉपी पेस्ट वर्जित
शिवकान्ति आर कमल
( तनु जी )
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