Monday, September 3, 2018

"तृष्णा मंजिल पाने की"


यूँ तो हर किसी को लगती थी,
दुल्हन कोई नवेली सी-------
जब करीब से जाना,
तो वो----
अनसुलझी सी पहेली थी-----

उसकी आँखों में देखा,
एक गहन समंदर,
की, थी हमने,
थाह खोजने की कोशिश,,,,,

लेकिन मिली सिर्फ शिथिलता,
और शिथिलता------

वो मौन चित्त साँझ की बेला में,
अथाह कूप लिए,
अपनी आह में,,,,,
देख रही थी सूरज ढलने से पहले,,,,,
रंग बदलती हुयी गोधूल की लालिमा।।।।।
यूँ लग रहा था जैसे कुछ ही पल में,
वो विजय पाना चाहती है,,,,,,
 चलने वाले निरंतर संघर्षों पर-----

हाँ कुछ ही पल तो थे,
सूरज ढलने में जब,
कुरुक्षेत्र में बाजी पलट दी थी योगेश्वर ने------
शायद यही बुदबुदा रही थी वो----


उसकी सरल चितवन में,
जैसे सवालों की झड़ी थी----
लेकिन ओंठ उसके मौन थे।
मैं जाने लगी उसके सवालों का उत्तर देने।

 लेकिन कदम ठिठक गये,,,,,
यह सोंचकर,,,,
खामोश निगाहों के सवाल बहुत ही व्यापक होते हैं।।।।।।

उसके सांसों के आरोह,
अवरोह की ध्वनियां,,,,,,
समेटें थी स्वयं में न जाने कितने,,,,,
काले मेघों की गड़गड़ाहट-----

यूँ लगता था बरस गयीं तो!
बहा ले जाएँगी न जाने कितने,,,
खोखले आदर्शों की बस्तियां---

उसके दिल के रेगिस्तान में,
शायद नदी ने बहने से मना कर दिया----
और उसका कंठ बेहद,
सूखा लग रहा था------

अपने नेत्रपटल बंध करके,
उसमें संचित मेघराज से,
अपनी *तृष्णा* को मिटाने का प्रयास करते हुए,,,,

वो धीरे- धीरे चलने लगी,
किसी अनजाने पथ की ओर----

स्वयं में स्वयं को भीचें हुए-----
तन्हा सी बड़बड़ा रही थी,,,,,,
मंजिल तुझे पाना है,
ऐ मंजिल तुझे पाना है।।।

अपने क़दमों को पूरी ताकत से,
उठाते हुए------
लहूलुहान कदमों से,,,,,
बिना रुके वो फिर चलने लगी-----

आसमां की तरफ देखा और फिर बोली,

!!!!!!!!!!!ऐ मंजिल तू जरूर मिलेगी,
कभी न कभी,
मैं आ रही हूँ खोज में तेरी,

ऐ मंजिल तुझतक आना है,
ऐ मंजिल तुझे पाना है।।।।।।।।

दिन-सोमवार
दिनांक-०३/०९/२०१८

शिवकान्ति आर कमल
(तनु जी)

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