*मन पवित्र तो सब पवित्र*
घर, परिवार में हों,
या हों बाजार में,
दुनिया की भीड़ हो,
या हो निर्जन-------
हृदय के धरातल से पुकारता है जब,
वो माथे का चुंबन और
पवित्र आलिंगन-------
नाम लेते ही उसका,
महसूश होता है,
एक आवरण सा-----
पवित्र मन की गहराई के समंदर में!
प्रेम, स्नेह और भरोसे के अथाह मोती भरकर-------
ईश्वर ने कलम चलायी होगी,
खूब संभल-संभल कर****
पुकारने वाले को जिस शब्द,
में न हो कठिनाई----
उस शब्द को नाम दे दिया *भाई*
रिस्ता खून का था या पराया,
फर्क करना मुश्किल हो गया-----
जब फंसने लगे कसमकश के भंवर में।।।।।
तब वो शाहिल हो गया-----
एक पल में बदल जाता है,
दुनिया के देखने का अंदाज---
मन मंदिर में बजते हैं,
ईश्वर के बनाये कुछ साज-----
इस देश की संस्कृति का इतिहास,
भरा है,,,,
रिस्तों के त्याग और बलिदान से----
लेकिन बदकिस्मती तो देखो जरा,,,,
निज नया इतिहास रच देते हैं।।।।
दिमांग से होशियार और पश्चिमी लोग------
तब ससंकित हो उठती है पवित्रता भी,,,,,
और मेरे हृदय पटल का विशाल समंदर,
शोक में डूब सा जाता है-----
इस बदली हुई सोंच,
और भेड़ चाल में भी-------
अड़ा है वो रिस्ता,
सर्पों से लिपटे,,,
चन्दन की तरह------
शांत, शीतल, सुखद और अडिग------
दो शब्दों की गहराई,
यदि समझ जाये,,,,
यह बदली हुई संस्कृति-----
तो संस्कार विहीन सडकों पर,
गूंज उठे फिर गाथाएं,
पवित्र बंधन और पवित्र मन की-----
समेटने लगें अपना आवरण,
अर्धनग्न घूमती स्त्रियां----
यदि उन्हें घूरने वाली आँखों का,
अंदाज बदल जाये------
यदि बदलाव इतना ही जरुरी है,,,,,
तो बदल दो यह सोंचना की वह मेरी नही किसी और की बहन है,,,
यह मेरा नही किसी और का भाई है--------
*मन पवित्र तो तन पवित्र*
*तन पवित्र तो सब जन पवित्र*
*देखो तो पवित्र नज़रों से----*
*यहाँ महफ़िल भी पवित्र और,*
*निर्जन भी पवित्र*
स्वलिखित
दिन- बुधवार
दिनांक
05/09/2018
निर्देश- एडेटिंग, कॉपी पेस्ट वर्जित
शिवकान्ति आर कमल
(तनु जी)
घर, परिवार में हों,
या हों बाजार में,
दुनिया की भीड़ हो,
या हो निर्जन-------
हृदय के धरातल से पुकारता है जब,
वो माथे का चुंबन और
पवित्र आलिंगन-------
नाम लेते ही उसका,
महसूश होता है,
एक आवरण सा-----
पवित्र मन की गहराई के समंदर में!
प्रेम, स्नेह और भरोसे के अथाह मोती भरकर-------
ईश्वर ने कलम चलायी होगी,
खूब संभल-संभल कर****
पुकारने वाले को जिस शब्द,
में न हो कठिनाई----
उस शब्द को नाम दे दिया *भाई*
रिस्ता खून का था या पराया,
फर्क करना मुश्किल हो गया-----
जब फंसने लगे कसमकश के भंवर में।।।।।
तब वो शाहिल हो गया-----
एक पल में बदल जाता है,
दुनिया के देखने का अंदाज---
मन मंदिर में बजते हैं,
ईश्वर के बनाये कुछ साज-----
इस देश की संस्कृति का इतिहास,
भरा है,,,,
रिस्तों के त्याग और बलिदान से----
लेकिन बदकिस्मती तो देखो जरा,,,,
निज नया इतिहास रच देते हैं।।।।
दिमांग से होशियार और पश्चिमी लोग------
तब ससंकित हो उठती है पवित्रता भी,,,,,
और मेरे हृदय पटल का विशाल समंदर,
शोक में डूब सा जाता है-----
इस बदली हुई सोंच,
और भेड़ चाल में भी-------
अड़ा है वो रिस्ता,
सर्पों से लिपटे,,,
चन्दन की तरह------
शांत, शीतल, सुखद और अडिग------
दो शब्दों की गहराई,
यदि समझ जाये,,,,
यह बदली हुई संस्कृति-----
तो संस्कार विहीन सडकों पर,
गूंज उठे फिर गाथाएं,
पवित्र बंधन और पवित्र मन की-----
समेटने लगें अपना आवरण,
अर्धनग्न घूमती स्त्रियां----
यदि उन्हें घूरने वाली आँखों का,
अंदाज बदल जाये------
यदि बदलाव इतना ही जरुरी है,,,,,
तो बदल दो यह सोंचना की वह मेरी नही किसी और की बहन है,,,
यह मेरा नही किसी और का भाई है--------
*मन पवित्र तो तन पवित्र*
*तन पवित्र तो सब जन पवित्र*
*देखो तो पवित्र नज़रों से----*
*यहाँ महफ़िल भी पवित्र और,*
*निर्जन भी पवित्र*
स्वलिखित
दिन- बुधवार
दिनांक
05/09/2018
निर्देश- एडेटिंग, कॉपी पेस्ट वर्जित
शिवकान्ति आर कमल
(तनु जी)
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